चारणों की खुद्दारी कहाँ गई
वो वाणी की खुमारी कहाँ गई
क्या खोया है कभी सोचना
चारणों ! समझदारी कहाँ गई
देव से मनुष्य मनुष्य भी कहाँ
स्वाभिमान वफादारी कहाँ गई
मूल्यों की रक्षा करते नहीं है उन्नत चारणाचारी कहाँ गई
बुराइयों के दलदल में धंसते
दिली अच्छाई बेचारी कहाँ गई
उफ़्फ़ ये कैसा युग ले आये है
चारणों! विवेक विचारी कहाँ गई
डॉ प्रेम दान भारतीय
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